S125, (क) श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यानयोग ।। The Secret Meditation in Hindi ।। १८.९ .१९५५ ई० प्रातः

महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर / 125

प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के इस प्रवचन सीरीज में आपका स्वागत है। आइए आज जानते हैं-संतमत सत्संग के महान प्रचारक सद्गुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज के हिंदी प्रवचन संग्रह "महर्षि मेंहीं सत्संग सुधा सागर" के प्रवचन नंबर 125 के बारे में। इसमें बताया गया है कि  ज्ञान और योग करने से क्या प्राप्त होता है? हठयोग और राजयोग में क्या अंतर है? 

इसके साथ ही आप इस प्रवचन (उपदेश, अमृतवाणी, वचनामृत, सत्संग सुधा, संतवाणी, गुरु वचन, उपदेशामृत, ज्ञान कथा, भागवत वाणी, संतवचन, संतवचन-सुधा, संतवचनामृत, प्रवचन पीयूष )  में  पायेंगे कि- ज्ञान और योग करने से क्या प्राप्त होता है? ज्ञान किसे कहते हैं? क्षेत्र किसे कहते हैं? क्षेत्रज्ञ या आत्मा किसे कहते हैं? किन चीजों से छूटने से परमात्मा जैसा होता है? दार्शनिक विचार भिन्न - भिन्न क्यों है ? हठयोग और योग में क्या अंतर है?  एक हठयोगी की कथा। राजयोग की सिद्धि कैसे होती है? श्रीमद्भागवत गीता और ग्रंथों में राजयोग की चर्चा किस प्रकार की गई है? योगी का आहार-विहार कैसा होना चाहिए? इत्यादि बातों  के बारे में। इसके साथ-ही-साथ निम्नलिखित प्रश्नों के भी कुछ-न-कुछ समाधान इसमें मिलेगा। जैसे कि- हठयोग का अर्थ व परिभाषा, राजयोग और हठयोग में अंतर, भक्ति योग गीता के अनुसार, राजयोग कैसे देखे, गीता का छठा अध्याय हिंदी में, श्रीमद्भागवत गीता क्या संदेश देती है? कर्मयोग का सार क्या है? भक्ति योग गीता के अनुसार, महर्षि पतंजलि के अनुसार राजयोग को समझाइए, योग कितने प्रकार के होते, योग के प्रकार, योग से लाभ और हानि, योग शिक्षा की प्रमुख विशेषताएं, योग के उद्देश्य? इत्यादि बातें। इन बातों को जानने-समझने के पहले, आइए !  संत सदगुरु महर्षि मेंहीं परमहंस जी महाराज का दर्शन करें।

इस प्रवचन के पहले वाले प्रवचन नंबर 124 को पढ़ने के लिए   यहां दवाएं।

हठयोग और राजयोग पर विशेष रूप से चर्चा करते सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
हठयोग और राजयोग में अंतर पर व्याख्या करते हुए

              १२५. श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यानयोग 

प्यारे लोगो ! 

     मोक्ष पाने के वास्ते अथवा परमात्म दर्शन के वास्ते ज्ञान और योग - दोनों की बड़ी आवश्यकता है । ज्ञान का अर्थ है - जानना । योग का अर्थ है मिलना । ईश्वर संबंधी बातों का जानना , सत्य- असत्य का निर्णय होना , आत्मा - अनात्मा का विचार होना जिस ज्ञान में होता है , वह है ज्ञानमात्र व्यावहारिक ज्ञान सत्य - असत्य ज्ञान के समक्ष अज्ञान मेंं दाखिल है । श्रीमद्भगवद्गीता में एक अध्याय क्षेत्र क्षेत्रज्ञवाला ज्ञानयोग है । इसमें है कि क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के ज्ञान को ज्ञान कहते हैं और सबको अज्ञान कहते हैं ।

     पाँच स्थूल तत्त्व ( मिट्टी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ) पाँच सूक्ष्म तत्त्व ( रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द ) , दशेन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ आँख , कान , नाक , जिह्वा और त्वचा । पाँ कर्मेन्द्रियाँ हाथ , पैर , गुदा , लिंग और मुँह ) तथा मन , अहंकार , बुद्धि , प्रकृति , चैतन्य , संघात ( कहे गए का संघ रूप ) , धृति ( धारण करने की शक्ति ) , इनके विकार- इच्छा द्वेष , सुख , दुख ; इन इकतीस तत्त्वों को सविकार क्षेत्र कहते हैं । इनके अतिरिक्त जो शरीर में है , उसको क्षेत्रज्ञ या आत्मा कहते हैं । महाभारत में है कि यही क्षेत्रज्ञ जब शरीर के गुणों से छूट जाता है , तब परमात्मा हो जाता है । जैसे घटस्थित आकाश महादाकाश से भिन्न नहीं है , किंतु घट के फूट जाने पर वह एक - ही - एक महदाकाश रहता है । जैसे वह एक ही आकाश सबमें है , उसी तरह एक ही परमात्मा सबमें है , किंतु उस एक को पहचानना कठिन है । जैसे एक जेवर है सोने का । उस जेवर में सोना - ही - सोना है । जेवर का नाश होगा , सोना रहेगा । उसी तरह यह संसार जेवर है । परमात्मा सोना है , संसार का नाश होगा , परमात्मा रहेगा ।

     दार्शनिक विचार भिन्न - भिन्न हैं । ऐसा क्यों ?  एक जगह चार अंधे थे । उन लोगों के मन में हुआ कि हाथी देखा जाय । उनके सामने हाथी लाया गया । चारों ने हाथी के अंगों का अलग- अलग स्पर्श किया । जब हाथी चला गया , तब आपस में पूछने लगे कि हाथी कैसा है ? जिसने हाथी के पाँव को छुआ था उसने कहा - हाथी स्तम्भ के समान होता है । जिसने कान छुआ था- उसने कहा - हाथी सूप के समान होता है । जिसने लँड छुआ था , उसने कहा - हाथी मूसल के समान होता है । जिसने पेट - पीठ छूए थे , उसने कहा- हाथी कोठी के समान होता है । जिस तरह उन अंधों को नयनहीनता के कारण हाथी का सही ज्ञान नहीं हुआ , उसी तरह केवल दार्शनिक - विचार में यह अंधापन नहीं छूटता । कोई बड़ा दार्शनिक है , किंतु उसकी आँख खुलती नहीं । यह आँख कैसे खुलेगी ? योग के द्वारा । योग के द्वारा जो परमात्मा से जाकर मिलता है , वही ठीक - ठीक जानता है । इसलिए योग और ज्ञान - दोनों की बड़ी आवश्यकता है । 

     यह योग हमारे देश में जितने अधिक दिनों से आ रहा है , उतने पुराने और किसी देश में नहीं । दार्शनिक विचार दूसरे - दूसरे देश में भी थे , किंतु योग के सहित दर्शन हमारे देश में भी था और है । हाल ही में हमारे देश में एक अंग्रेज पाल ब्रटन नाम के आए थे योग की खोज में । दक्षिण भारत के मदुरै में श्री महर्षि रमण से बहुत संतुष्ट होकर वे अपने देश गए । लोग योग से डरते हैं , किंतु योग का अर्थ जोड़ना है । योगदर्शन पढ़नेवाले कहते हैं - चित्तवृत्ति - निरोध को योग कहते हैं । यह भी ठीक ही है । हमारे देश में हठयोग विशेष प्रसिद्ध है । यह इसलिए कि इस क्रिया के द्वारा शरीर की पूरी सफाई हो जाती है , जिससे राजयोग क्रिया करने में सुलभता होती है । हठयोग राजयोग की क्रिया करने के योग्य बनाने के लिए किया जाता है , न कि यह हठयोग - योग है इसमें ठीक - ठीक रीति से किया जाय , तब तो ठीक है , यदि अविधि हुई तो बड़ी गड़बड़ी होती है । 

     एक योगी थे , वे लम्बे दतुवन अपने मुँह से धीरे - धीरे गले के नीचे उतारते थे , फिर उसे निकाल लेते थे । यह क्रिया वे प्रायः प्रतिदिन किया करते थे । एक दिन ऐसा हुआ कि दतुवन असावधानी के कारण उसके पेट चला गया । उसके चलते दतुवन मुंह से निकल नहीं सका । परिणामस्वरूप उनका प्राणान्त हो गया । हठयोग में किसी का मस्तिष्क खराब हो जाता है । इससे लोग समझते हैं कि योग बड़ा कठिन है । शाण्डिल्योपनिषद् में लिखा है

यथा सिंहोगजो व्याघ्रो भवेतश्यः शनैः शनैः । तथैव सेवितो वायुरन्यथा हन्ति साधकम् ॥ 

     अर्थात् जैसे सिंह , हाथी और बाघ धीरे - धीरे काबू में आते हैं इसी तरह प्राणायाम ( अर्थात् वायु का अभ्यास कर वश में करना ) भी किया जाता है , प्रकारान्तर होने से वह अभ्यासी को मार डालता है । इन घटनाओं से हमारे देश के लोग योग से बहुत डर गए हैं । अकेला हठयोग पूर्णता को प्राप्त नहीं करा सकता । उसके बाद राजयोग करने से ही पूर्णता प्राप्त होगी और राजयोग बिना हठयोग के भी पूर्णता को प्राप्त करा देता है । 

     श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा - ' यह योग मैंने पहले पहल सूर्य को बताया । सूर्य ने अपने पुत्र मनु को , मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया था । इस भाँति राजर्षियों की परम्परा में यह उपदेश बहुत काल तक चलता रहा ' दीर्घकाल की प्रबलता से इस योग का लोप हो गया , जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाकर प्रकट किया ।

     गीता में ध्यानयोग का एक अध्याय खास करके है । प्राणायाम के विषय में चर्चा तो है , किंतु एक भी अध्याय प्राणायाम योग का नहीं है । ध्यान योग के लिए तो कहा गया है कि ऐसी जगह पर बैठो , ऐसी आसनी रखो , इस ढंग से बैठो ; किंतु प्राणायाम के लिए ये सब कुछ नहीं बतलाए गए हैं । इससे साफ मालूम होता है कि भगवान ने ध्यानयोग की ओर विशेष ध्यान दिया है । मन को पवित्र रखो और मन को साधना में लगाए रहो इस प्रकार निरन्तर अभ्यास करते रहने से ध्यान- योग सिद्ध होगा । गुरु नानकदेवजी ने कहा है- 

गुरकी मूरति मन महि धिआनु । गुरु कै शबदि मंत्र मनु मानु ।। गुर के चरण रिदै लै धारउ । गुरु पारब्रह्म सदा नमसकारउ ।। मत को भरमि भूलै संसारि । गुर बिनु कोई न उतरसि पारि ॥ भूलैकउ गुरिमारगि पाइआ । अबरितिआगी हरि भगती लाइआ ।। जनम मरण की त्रास मिटाई । गुर पूरे की बेअंत बड़ाइ ।। गुरप्रसादि ऊरय कमल विगास । अंधकारमहि भइआ प्रगास ।। जिनिकिआ सोगुरतेजानिआ । गुरकिरपा ते मुगधमने मानिआ ।। गुरु करता करणै जोगु । गुरु परमेसुर है भी होगु ॥ कहु नानकप्रभि इहु जनाई । बिनुगुरु मुकति न पाइ भाई ।।

संत कबीर साहब ने कहा है 

मूल ध्यान गुरु रूप है , मूल पूजा गुरु पाँव । मूल नाम गुरु वचन है , मूल सत्य सतभाव ।। 

     संतों ने साधना के आरंभ में कुछ व्यक्त उपासना का सहारा अवश्य लिया है । किसी ने राम का , किसी ने कृष्ण का , किसी ने देवी आदि के स्थूल रूप का सहारा उपासना में लिया ; किंतु इतना ही नहीं , इसके बाद उन्होंने सूक्ष्मध्यान भी बताया है , जैसे अणोरणीयाम् का ध्यान अर्थात् विन्दु ध्यान । तेजोविन्दूपनिषद् में आया है 

तेजो विन्दुः परंध्यानं विश्वात्महृदि संस्थितम् । 

     अर्थात् हृदयस्थित विश्वात्म तेजस् स्वरूप विन्दु का ध्यान परम ध्यान है । ध्यानविन्दूपनिषद् में भी आया है

बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् । सशब्दं चाक्षरे क्षीणे नि : शब्दं परमं पदम् ॥

     अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है । उसके ऊपर नाद है । नाद जब अक्षर ( अनाश ब्रह्म ) में लय हो जाता है , तो निशब्द परम पद है । संयम के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के छठे अध्याय में कहा है 

युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु । युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ 

     अर्थात् दुःखों का नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार - विहार करनेवाले का , कर्मों का यथायोग्य चेष्टा करनेवाले का और यथायोग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है । इसलिए भोजन , शयन , जागरण और जागतिक कार्यों में भी संतुलन रखो । 

     शरीर की सफाई रखो । केवल शरीर की सफाई ही नहीं , शरीर मैला रहे और मन पवित्र रहे , तो वही विशेष है । केवल शरीर पवित्र हो और मन मैला हो तो वह किस काम का ? सूक्ष्म ध्यान के बाद अरूप ध्यान नाद है । इसी को कहा- 

बाजत नाम नौबति आज । द्वै सावधान सुचित सीतल , सुनहु गैब आवाज ॥ सुख कंद अनहद नाद सुनि , दुःखदुरितक्रमभ्रम भाज । सतलोक वर सोपानि , धुनि निर्वान यहि मनबाज ॥ तोहंचेत चित दै प्रेम मगन , अनंद आरति साज । घर राम आये जानि , भइनि सनाथ बहुरा राज ॥ जगजीवन सतगुरु कृपा पूरन , सुफल भेजन काज । धनि भाग दूलन दास तेरे , भक्ति तिलक विराज ॥ -संत दूलनदासजी 

और कबीर साहब ने कहा 

पाँचो नौबत बाजती , होत छतीसोराग । सो मंदिर खाली पड़ा , बैठन लागे काग । 

किंतु जबतक विन्दु को कोई नहीं पकड़ सकता , वह नाद ध्यान करने के योग्य नहीं होता । संत पलटू साहब ने कहा - 

' विन्दु में तहँ नाद बोले , रैन दिवस सुहावन । '

     इसकी युक्ति गुरु से जानकर त्रयकाल संध्या करो । इसके लिए घरवार छोड़ने की जरूरत नहीं । जो जिस अवस्था में है , उसी में रहते हुए भजन करो । फिर सोते समय भी थोड़ा - थोड़ा ध्यान करते हुए सो जाओ । तन काम में , मन राम में लगाए रहो । तामसी - राजसी भोजन नहीं करो । सात्त्विक भोजन करो । सात्त्विक भोजन भी हल्का करो । विशेष खाने से आलस्य विशेष आता है - उससे भजन नहीं बन सकता । कम खाने से ऐसा नहीं होगा कि शरीर में बल नहीं रहेगा । हल - फाल जोतनेवाले भी ध्यान कर सकते हैं । हमारे विशेष सत्संगी तो हल - फाल जोतनेवाले ही हैं । योग कोई हौआ नहीं है । इससे डरने की जरूरत नहीं है । थोड़ा - थोड़ा सब कोई अभ्यास कीजिए ।∆

 (यह प्रवचन भागलपुर जिलान्तर्गत मोहद्दीनगर के दुर्गास्थान में दिनांक १८.९ .१९५५ ई० को प्रातः सत्संग में हुआ था । )


नोट-  इस प्रवचन में निम्नलिखित रंगानुसार और विषयानुसार ही  प्रवचन के लेख को रंगा गया या सजाया गया है। जैसे-  हेडलाइन की चर्चा,   सत्संग,   ध्यान,   सद्गगुरु  ईश्वर,   अध्यात्मिक विचार   एवं   अन्य विचार   । 


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सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज के विविध विषयों पर विभिन्न स्थानों में दिए गए प्रवचनों का संग्रहनीय ग्रंथ महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर
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S125, (क) श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यानयोग ।। The Secret Meditation in Hindi ।। १८.९ .१९५५ ई० प्रातः S125, (क) श्रीमद्भगवद्गीता में ध्यानयोग ।। The Secret Meditation in Hindi ।। १८.९ .१९५५ ई० प्रातः Reviewed by सत्संग ध्यान on 5/24/2018 Rating: 5

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